Friday, May 8, 2015

तुमको ढूँढ़ती हूँ मैं

नाम बदले जा रहे हैं शहरों के
गलियों के, सड़कों के, योजनाओं के
वो जो तुम्हारा लम्बा सा नाम  था (जिसे तुम बासी कहते थे),
क्या बदल चुके हो तुम?
उस नाम का कोई मिलता नहीं

कहते हैं शहर का चेहरा बदल रहा है
परिपक्व हो रहा है ये
नए फ्लाई-ओवर्स की लकीरें
नए अपार्टमेंट्स के धब्बे
नज़र आने लगे हैं
तुम्हारा भी चेहरा, कुछ तो बदला होगा मान के चलती हूँ

 इस शहर के शोर के बीच
इस बहुमंजिला के सन्नाटे में
करोड़ों पदचापों में
कहाँ है? वो, जो कभी न गुमने वाली
कभी न बदलने वाली आवाज़ थी तुम्हारी

तुमको ढूँढ़ती हूँ मैं

खुद को ढूँढती हूँ मैं

(गुलज़ार के "नाम ग़ुम जाएगा" से प्रेरित )

Thursday, May 7, 2015

मन दर्पण

"तोरा मन दर्पण कहलाये"

मन कई दिनों से शिकायतनामे में शिकायत दर्ज करा रहा था - मेरी हालत  ठीक नहीं। तो सोचा आज झाँक के देख  ही लिया जाए कि दिक्कत क्या है! ग़ौर फ़रमाइये ये वही मन है, जिसमें आज तक अपनी ही सूरत (और सीरत) नज़र आई है।

पर ये क्या! आज तो यहाँ किसी और की-सी ही सूरत दिख रही है। कोई थका, निस्तेज चेहरा; एक तुच्छ, कमीना-सा व्यक्तित्व। बुझी हुई आँखें।

कौन हो तुम और क्यूँ मेरे मन को अंदर ही अंदर खाए जो रहे हो? - मेरी आवाज़ मानो किसी कुएँ की गहराई में समा गयी।

"पहचानो, मैं तो वही हूँ, तुम्हारा बचपन का दोस्त। तुमने मुझको मार डाला, अब मेरी बारी है। "